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Bhavna Thaker

Abstract

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Bhavna Thaker

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ज़िंदगी की गुत्थियां

ज़िंदगी की गुत्थियां

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गिरह खुलती नहीं, गुत्थियाँ सुलझती नहीं 

एक जीवन में कितने कोस बिठाए बैठी है

ए ज़िन्दगी कभी तो मेरे ढंग में ढ़लकर देख,

मेरी सोच में बसकर देख, मुझे जी कर देख,

ले फ़िर मजा चुनौतियों की रंगीनीयों का,

हो जाएगी खुद से तू खुद ख़फ़ा

देख खुद ही खुद की ज़ालिम अदा..!

क्यूँ ज़िंदगी की कुछ ताने क्षुब्ध कर देती है हमें,

जरूरी तो नहीं की उसका हर फैसला हमें मंज़ूर हो..! 

उसकी ताल पे नाचते पैर जो पकड़ ले दिल की मधुर तान, तो क्या हुआ की उम्र के कुछ लम्हें खुदपरस्ती में कटे..!

जाने

क्यूँ खींच लेती है ज़िंदगी अपनी बंदिशो के दायरे में हमें ?

वक्त के हाथों की कठपुतली है इंसान की शख्सियत, कहाँ अपनी खुशी से ज़िंदगी की ज़मीन पर बो सकते है अपने सपनो के बीज..!

वो आसमान भी तो नसीब होना चाहिए जो बरसा दे नेमतों की नमी, 

बूँदें दर्द के घने बरगद के उपर बरसे भी तो क्या हर शाख तो हरी नहीं होती

रह जाते है कुछ समिध अधजले ना जलते है ना बुझते है..!

बस चुनने है हमारे हिस्से के समिध हमें, ज़िंदगी के यज्ञ की धूनी जल रही है अर्घ्य को तरसती,

होमने तो होंगे आख़री आँच तक सपनो को पकाने की कोशिश में जूझते।।


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