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जिंदगी और शहर

जिंदगी और शहर

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हर पल एक आस है,

जिंदगी अपनी भी कुछ खास है,

यूँ तो हज़ार ख्वाब है अपने,

और जिंदगी के रंग भी,

पर दरख़्त-ऐ-जिंदगी का बसर,

इस शहर में नहीं,

क्योंकि शहर सोती नहीं,

गरीबों को रोटी नहीं, और

अजनबी सा हर कोई, इस शहर में,

जो दूसरों के दर्द पर रोती भी नही ।


यंही पर गांव था अपना,

जिसमे भी लोग थे,

मासूम से, शरीफ से,

आमदनी नही थी,

पर दिल के धनी थे,

दूसरों के दुख में अपना देखने वाले,

रोटी को टुकड़ो में बांटने वाले,

छोटी-छोटी बातों में, खुशियाँ ढूंढने वाले

वक़्त बेवक़्त दरख़्त-ऐ-जिंदगी,

का ख़बर रखने वाले ।


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