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जीवन वासी

जीवन वासी

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कोई

जलजला, भूकंप, तूफान,

अकाल नहीं पड़ा।


पर जीवन के अंतिम पड़ाव पर

नीली नसों वाले हाथों में

सफेद पड़ी हथेलियों से,


फिर से थाम ली

बुहारी नयी काँटों वाली

बुहारने को इक नया घर

जीने के लिए।


बाँधा झूकी कमर

पर पुराना दुप्पट्टा

कसी घिसी हुई

चप्पलों की कसें,


मोतियाबिंद वाली आँखों से

मोती बिखेरती

पहुँच गई बुहारने,

झाड़ने, उतारने,


भूतकाल की यादों के

मकड़जाल कोई संग,

अपना-पराया,


नहीं हाथ पकड़ने को तैयार

रीढ़ की हड्डी के सन्नाटे को तोड़ती

उंगलियों की पोरों को झनझनाती

पेट की आँतों क़ो कसमसाती,


आँखों की लुनाई को दबाती

उठी, बैठी, गिरी,

चली फिर बढ़ी जीने।


जितनी रेखाएँ हाथों में,

उतने ही घुमाव जीवन में

भूलकर आठ दशकों का दुःख-सुख,


पेट की आग नहीं,

मन की आग सुलगाए रखने

कहीं कोई,छाँव,

आशा, सपना, सुकून नहीं,


मात्र गर्म आवाजें,

ताने, उलाहने,

शब्दहीन, सवांद हीन,

स्पर्शहीन, स्नेहहीन

जीवन में ...


फिर से लड़ने, भिड़ने, अकड़ने

झूकी कमर, सधे आत्मबल से

चिरनिद्रा से आगमन तक।


अपने ही आँगन से निर्वासित होकर

वनवासी, वनगमन नहीं

जीवनवासी बनने

चली वह।


चली वह चली वह।

कोई भूकंप,जलजला,

तूफान, अंधड़,अकाल नहीं पड़ा

एक पूरा पका जीवन,


कच्चे-पक्के,

मीठे पेड़ों को देकर जीवन

बढ़ी, चली आगे बढ़ी

चुपचाप, चुपचाप, चुपचाप।।


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