जीवन और प्रेम
जीवन और प्रेम
थीं किरणें तेज तब -
पृथ्वी ने नभ की ओर देखा।
विकल होकर कराही,
हरित आंचल को समेटा।
तभी एक अब्र के टुकड़े ने,
कर दी थी हिमाकत।
श्याम रंग ने ढक लिया,
स्वर्ण सी आभा को आकर।
रुका बस कुछ पलों तक,
वो था आवारा सा बादल।
था रोया फूटकर फिर चल दिया,
जैसे हो पागल।
विटप ने खुद की खातिर,
अंजुरी भर जल बटोरा।
विहग ने नीड़ से छिपकर,
धरा की ओर देखा।
धरा फिर मुस्कुरा दी,
दी थी बादल को दुआएँ।
हरे रंग से सजी थी,
फिर से पथरीली शिलाएं।