जीना भय के साथ
जीना भय के साथ
यहां
बसंत तो आ चुका
अब इस मौसम का
पर खौफ
कोरोना का
जहन से
अब तक गया नहीं,
जो डर तब था
वो अब भी है
निरंतर
बना हुआ
अपनों की सलामती का।
बीते वर्ष से
कैद हैं सभी
अपने अपने घरों में,
बाहर भी तो
निकलते हैं
सिर्फ मृत्यु के भय में।
जाने कब
ख़त्म हो
ये जहनी कैद,
कब स्वछंद
सब जी सकेंगे
ढल सकेंगे
अपने पुराने किरदारों में।
आसमान खुला है
साफ भी है
मगर
सारे पंछी
खामोश हैं
उन्हें भी पता है
ये उड़ान का
उचित वक्त नहीं है।
मन दुःखी
सुबुकता है
रह रह कर
इस गहन
पीड़ा से,
रो रहा है वो
पिछले बसंत से।