जब कोई मरता है
जब कोई मरता है
धरती पे सदा अजर अमर, तो नहीं कोई भी रहता है
यहाँ पर जो भी पैदा हुआ है, वो हर कोई ही मरता है
पर जब कोई एक करता है, और कोई दूसरा भरता है
ऐसे में उस भुक्तभोगी के सिवा, क्या कोई भी मरता है
इंसान मरने से तो कम, मारे जाने से ज्यादा डरता है
दुश्मन से समझौता करने वाला, हालातों से लड़ता है
मर्जी से भी न करने वाला, मजबूरी में सब करता है
बोझ तले उन गलतियों के, वो मजबूर सदा ही मरता है
रसूखदार के रसूख से, हर इल्ज़ाम गरीब पे पड़ता है
बदुआ से उसकी, उसकी काया का इंच इंच सड़ता है
दर पे ऊपर वाले के वो, अपना रसूखी नाक रगड़ता है
पर फिर भी जीते जी तो, वो गरीब ही पल पल मरता है
ऊपर वाले के दिए कष्ट भला, कौन किसी के हरता है
आभास भले ही न हो, पर घड़ा पाप का जरूर भरता है
किसी का भी सताया इस जग, में जीते जी जब मरता है
हर कील अपने ही ताबूत की, वो हैवान स्वयं ही गढ़ता है
कब किसी के चाहे से, ये संसार कभी भी सारा चलता है
इस दुनिया में तो, उस पालनहार का ही, इशारा चलता है
मैं बच गया हूँ दे कष्ट किसी को, जो कोई ये समझता है
इंतजार करे वो बारी का, कि कब उसका किया फलता है
मानव होकर सर्प की भांति, जो कोई भी सबको डंसता है
वक्त आने पे, उसका ही डंसा, हर कोई, उसपे ही हंसता है
अपने ही टांगे हुए फंदों में, खुद जाकर दरिंदा वो फंसता है
गड्ढे जो उसने खोदे हुए हों, उसमें स्वयं ही वो, जा गिरता है
सभी जनों को आपस में, बाँटने फिर काटने में जो मस्ता है
भूल गया वो इस भव सागर को, पाटने का एक तो रस्ता है
किसी के जुल्म सितम से, टूट-फूटकर जब, कोई मरता है
न समझे वो यहाँ सब चलता है, देर सवेर पाप घड़ा फटता है।
