जाने क्या चाहती
जाने क्या चाहती
भीड़ में कभी अकेला पाया है खुद को ?
मैं हर भीड़ का हिस्सा होती हूं
फिर भी अकेली हो जाती
अब तो अकेले की ऐसी आदत सी हुई है
कोई बात करे तो लगता है
अब जाना चाहिए इसे
बहुत देरी हुई है
ऐसा नहीं है कि सब पूछते रहे मुझको
ये तो मैं खुद नहीं चाहती
बस जब कोई ध्यान नहीं देता मुझपर
जाने क्यूं दिल में कहीं बुरा मान जाती
क्या अजीब उलझी पहेली हूं मैं
जो खुद को सुलझा नहीं पाती
क्या चाहती हूं ये खुद को पता नहीं
पर उम्मीद पूरी रखती हूं
काश ये दुनिया मुझे समझ पाती।
