इतवार
इतवार
आज फिर मेरे हाथ
एक इतवार आया है।
हर दिन में मैं तलाशती इसको
बमुश्किल तमाम मेरे हाथ आया है।
मैंने इसको लिया आड़े हाथ
जब खिसक रहा था ये दबे पाँव।
पूछा मैंने उसको,
क्या जल्दी है तुमको जाने की?
क्यूँ नहीं होती जल्दी आने की ?
हर दिन से होता है
एक सौतेला से व्यवहार
तब जाकर मिलता है एक इतवार।
मशीनी ज़िंदगी की आँखों में
कुछ इंसानी अक्स है इतवार।
भागमभाग में ख़र्च होती ज़िंदगी में
एक सुकून की साँस है इतवार।
इतवार से ही होता है
स्वाद चाय में।
शामों की रौनक भी
होती इतवार से ही है।
बाकी दिनों में तो ज़िंदगी,
महज़ घड़ी की सुईयों की गुलाम ही है।
