इंतज़ार होली का
इंतज़ार होली का


मन मेरा भी करता है की मैं भी पहले की तरह होली खेलूँ ,
रंगों से तर - ब - तर हो अपने सारे दुख भूलूँ ,
होली वैसी जैसी माँ के आँगन में जी भर - भर कर बेसुध हो खेलती थी ,
होली वैसी जैसी सखियों संग उन्हीं से हाथ छुड़ा वापस उन्हीं से जा लिपटती थी ,
ऐसा जोश होता थाना खुद का होश होता था ,
बिना खाये भाँग की गोलीमन गज़ब का मस्त होता था ,
ना मन का मलाल ना कोई सवाल कि क्यों तुमने लगा दिया मेरे गालों पर गुलाल ,
अनजान के घर भी गुजिया खा आते थे फागुन में फगुये की सौगात दे आते थे ,
अब तो ललचती आँखों से सबको होली खेलते देखते हैं ,
नही नही नही हम होली नही खेलते हैं बस यही कहते हैं ,
इंतज़ार है मुझे भी फागुन की फगुआहट का ,
आके चुपके से रंग लगा दे कोई मुझे ऐसी किसी आहट का ।