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Mamta Singh Devaa

Abstract

4  

Mamta Singh Devaa

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इंतज़ार होली का

इंतज़ार होली का

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मन मेरा भी करता है की मैं भी पहले की तरह होली खेलूँ ,

रंगों से तर - ब - तर हो अपने सारे दुख भूलूँ ,

होली वैसी जैसी माँ के आँगन में जी भर - भर कर बेसुध हो खेलती थी ,

होली वैसी जैसी सखियों संग उन्हीं से हाथ छुड़ा वापस उन्हीं से जा लिपटती थी ,

ऐसा जोश होता थाना खुद का होश होता था ,

बिना खाये भाँग की गोलीमन गज़ब का मस्त होता था ,

ना मन का मलाल ना कोई सवाल कि क्यों तुमने लगा दिया मेरे गालों पर गुलाल ,

अनजान के घर भी गुजिया खा आते थे फागुन में फगुये की सौगात दे आते थे ,

अब तो ललचती आँखों से सबको होली खेलते देखते हैं ,

नही नही नही हम होली नही खेलते हैं बस यही कहते हैं ,

इंतज़ार है मुझे भी फागुन की फगुआहट का ,

आके चुपके से रंग लगा दे कोई मुझे ऐसी किसी आहट का ।



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