इंसानियत
इंसानियत
धुँआ धुँआ सा शहर है,आता न कुछ नज़र है,
दौड़ रहे हैं सभी जिसकी तलाश में
वो मंज़िल न जाने किधर है ।
ज़िन्दा तो हैं पर ज़िन्दगी कहीं खो गई,
इंसानों के शहर में इंसानियत कहीं खो गई
है अपना कौन और कौन पराया कुछ भी नहीं ख़बर है
चलते ही जा रहे हैं मंज़िल है, न रहगुज़र है
धुँआ धुँआ सा शहर है ।
अधूरी चाहतें अधूरी ख्वाहिशें उलझा हुआ इंसान है,
इन चाहतों की होड़ में बन बैठा हैवान है,
भोले चेहरों के पीछे गिद्धों की नज़र है
इन मुखौटों पर सभी जज़्बात बेअसर है
धुँआ धुँआ सा शहर है ।