इबादत
इबादत
तुम मुझ में हो
इस तरह क़ैद !
कि दूर हो पाती नहीं
मैं और मेरी हस्ती।
तुम्हीं से सीखी है
वो रिवायत !
जिसे कहते हैं, इमा व धर्म
सभी को बख्शा है
इबादत का तोहफ़ा तुमने।
यह तो हम और
तुम पर है
कि हो पाते हैं
कितने करीब एक- दूसरे से
बस या ख़ुदा
मैं रहूं सदा तुम्हारा
और तुम रहो हरदम मेरे ।
