हस्ती
हस्ती
बड़ी मुश्किल से जलाए थे दीये
अंधियारा मिटाने के ख़ातिर
पर बुझाने का कोशिश किया गया
उसे बड़ी चालाकी से
मेरी हस्तियाँ मिटाने के ख़ातिर।
पर मैं भी अब ठान लिया हूँ
समंदर कितना भी जोर लगा लें
स्वाभिमान रूपी कश्ती डूबने न दूँगा
चाहे जल जाए बस्ती (देह)
पर हस्ती मिटने न दूँगा
ये भी सच है कि, मेरी कोई हस्ती नहीं है
पर जो भी है,
वह कागज की कश्ती नहीं है
कि बहा दिया जाऐ बरसाती नाली में
अथवा फेंक दिया जाऐ कूड़ेदान में
बोनसाई सा दिखने वाला वट-वृक्ष हूं मैं
जो सिंचित है पितृ-घाम से
सिंचित है मातृ स्नेह से
किंचित भयभीत नहीं मैं
मधुरभाषिणी रिपु से
अथवा खंजरधारी प्रिय से।
अब समझ में आने लगा है
मुस्कान के प्रकार
और इसके पीछे का रहस्य
डर नहीं लगता है साहब
स्पष्टवादिता से
पर रूह काँप जाती है
जब कोई अश्रुपुरित नेत्रों से
ये कहता है कि
तुम तो अपने हो।