" हरसिंगार माॅं के आंगन का"
" हरसिंगार माॅं के आंगन का"


मायके की देहरी पर खड़ा
ये यादों का हरसिंगार
श्वेत केसरिया रंग में रंगा
मनमोहक सा यह हरसिंगार
रात में महकता है यूं
जैसें माँ का प्यार-दुलार
मैं बँधी हूँ उस एक डोर से
जो ना होतें हुयें भी
महकती रहती है
इस हरसिंगार सा....
इस हरसिंगार सा
उस आंगन में फिर से
मैं भी महकना चाहती हूं
यादों के उस गलियारें में
फिर से खिलना चाहतीं हूं
माॅं के उस आंगन में
मन सुकून सा पाता है
इसलिए इस हरसिंगार सा
फिर से बिखरना चाहती हूं
भलें ही रहूं कहीं और
कुछ देर यहीं ठहरना चाहती हूं
थोड़ी देर ही रहकर
पुनः महकना चाहती हूं
इन बिखरे हरसिंगार सा
यादें भी टकरातीं हैं
दूर रहकर भी तों
आंगन महका जाती हैं
जैसें आंगन के कुछ हिस्से में
खड़ा है ये हरसिंगार
वैसें ही मुझकों भी
इस आंगन में रहनें दों
थोड़ी देर मुझकों भी
इस आंगन में महकनें दों
यादों तुम जब भी लौटकर आना
हरसिंगार हथेली पर ले आना
आंगन में गुजरें वक्त का
बचपन का हरसिंगार बन जाना
सारी रात खिली बगिया में
हथेली महक पारिजात सुबह होते ही दूर हुई
माॅं मैं क्यूं पारिजात बनी
क्यूं मैं तुमसें दूर हुई
हरसिंगार के फूल की तरह
मायके के इस आंगन में
बेटियों की उम्र होती है कम
पर बिछड़कर भी अपनी खुशबू से
सबकीं ऑंखें कर देतीं नम
रात में झरने लगा है हरसिंगार
यादें ताजी हो गई फिर एक बार!