STORYMIRROR

विनीता धीमान

Abstract

3  

विनीता धीमान

Abstract

होली के रंग

होली के रंग

1 min
276

सखी,

आया फाल्गुन का महीना

मेरा मन मचल रहा है

पिछली होली को

याद कर बरबस

जब होली पर कान्हा


आये मेरे द्वार

कान्हा के साथ

होरी खेलन को

लाल रंग से न कारे से


मैं तो खेलू न्यारे से

जो रंग जाए एक बार

तो छुट्टे न फिर यार

कान्हा की पिचकारी


की चली ऐसी धार

की भीगी मेरी चुनरी

हो गई लालमलाल

अब माँ तो डाटेंगी


यही सोच मैं थी

की माँ आकर बोली

ओ रे कान्हा इसके

तो लगा दियोअब

तनिक मेरे भी लगा दो।


मैं भी भागी कान्हा संग

भर हाथ रंग के

माँ को रंग डाला

अपने रंग में

अब न होगी ऐसी होली


न कान्हा है न माँ

अब तो रंग है सिर्फ

होली के।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract