होली का रंग
होली का रंग
सांस सधे सेहत बने, नैनों के हो मान।
स्वर साधे से काम हो, मन से मिलता धाम।।
मन के साधे सब सधे, जन्म मृत्यु के बीच।
संयम से है राखिए, प्रिय धारा से सींच।।
रामू प्रेमू खेलते, होली लगा गुलाल।
भोर भये भौं टेढ़ से, ठोंक रहे हैं ताल।।
दिन बीते बैरी हुए, ताक रहे सब दाव।
बीच भंवर में चाहते, सभी डुबोना नाव।।
अब तो केवल बोल हैं,जग में मीठे मूल।
खुद को चल मन तौल रे, फल जहरीला शूल।।
मतलब तक रिश्ते सजे,शेष रहा मन भूल।
चुपके गर्दन काटते, बाहर बनते फूल।।
वह भोजन किस काम का,जिसमें केवल स्वाद।
पचे बिना वह पेट से, मल बन हो आबाद।।
होली का यह रंग है, दिल का नहीं सुजान।
लगे धुले वह भौतिका, जिस पर चढ़ा गुमान।।
रंग नहीं जो रॅग सके, जीवन पथ अनमोल।
बस्तु बना वह खेल का,बिके बजरिया मोल।।
मानवता का डाल रे, रंग रंगीला देह।
जिसका फल संयोग है, वर्षे जैसे मेह।।
छुआछूत माने नहीं, पंडित की है बोल।
उलट कहे आसन कभी,, छूना नहीं रमोल।।
क्या होली क्या दशहरा,क्या कजली की भेंट।
स्वार्थी मानव बांधकर, चले घृणा को फेंट।।
कर तो कुत्ता पूंछ है,पोंगड़ी हैं त्यौहार।
सीधा रहता खोल में, बांकी टेढ़ा डार।।
