STORYMIRROR

sai mahapatra

Abstract

3  

sai mahapatra

Abstract

हकीकत

हकीकत

1 min
300

इए दुनिया का रीत है पुरानी

यहां गैर बन जाते हैं अपने

और अपने 

 बनजाते हैं बैगाना।


आज जो तुम्हारे

चाहने वाले हैं

वो सब सिगार के धुएं है

तुम्हारे फेफ़ड़े जल ने

तक तुम्हरे साथ देंगे,


और बाद में बेसहरे

करके छोड़ देगे।

जिसके इंतज़ार में

मैंने बिताए अपनी सारी

रात रो कर,


आज वही बना बैठा है

अपनी इमारत मेरी आंसुओं की

बैसाखी के ऊपर चढ़कर।


आज एहसास हो रहा है

मुझे उसके धोखे का

आज मालूम पड़ रहा है

दर्द किसी अपने को खोने का।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract