हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ
उठकर प्रातः बागों में, मैं सूरज की किरणों से मिलता
हर फूल का हाल पूछता जो भी नया बाग़ में खिलता
जुड़ जाता हूँ मैं उससे जो मेरा विषय होता है
गुनगुनाने से मैं कौन हूँ, सबसे मेरा परिचय होता है
कभी खुद के गीत से खुद का मन बहलाता हूँ
मैं भँवरा नित नये फूलों के गाल सहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ !
हर पल, हर दिन मुझे नए फूल पे नया अनुभव होता है
एक जगह टिककर रहने मे व्यक्ति विस्मय होता है
मैं नए किस्से-कहानी और किंवदंतियों से मिल
हाँ नए शब्द चुन लाता हूँ मैं नए पंक्तियों से मिल
फिर इक नयी कविता रच पढ़ता बलखाता हूँ
इस तरह खुद की गिनती सौ बार दहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ !
हर साल की शीत बसंत में सारगर्भित हो जाता मैं
मधुमास की अमराई में नये किसलय पे बलखाता मैं
हर साल मोह का झालर बुन नए मोह में फंस जाता
फिर हर बार ठोकर खाता फिर हर बार डट जाता
दिन की तरह उगता शाम की तरह ढल जाता हूँ
अपने हीं अश्रुजल से अपने आप को नहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ !