ग़ज़ल
ग़ज़ल
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खुद हीं खुद में अब कहाँ हूँ मैं
जीते जीते मर चुका हूँ मैं
खुद ही खुद का ही मैं हूँ कातिल
खुद की ज़ाया का गवाह हूँ मैं
मुझसे पर्दा किस लिये क्यूँ है
तेरी आंगन की हवा हूँ मैं
ज़ख़्मों को खुद भर नहीं पाता
तुम तो कहते हो दवा हूँ मैं
जाने किसकी है दुआ 'बेघर'
खुद ही खुद में बददुआ हूँ मैं।
