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Aditi Mishra

Abstract

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Aditi Mishra

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गूँज

गूँज

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कुछ अलग ही रंग दिखे थे मुझे,

उस किताब के पन्नों की अठखेलियों में,

जैसे मासूम बचपन रूठ जाता है,

पर अलग ना हो पाए अस्तित्व से,

वो सुबह का कुहासा मानो एक रास्ता था,

मुझे उस अनजाने शहर में ले जाने का,

पर वो अनजाना कहाँ वो तो अपना ही था,


ज़िन्दगी जैसे पहली बार हाथ थामकर

चली हो,

जब फूलों का शाखों पर होना भी हो,

पर मौसम गुजरने पर शाखें खाली भी हों,

जैसे बारिश की वही बूँदें भिगा गईं हों,

जो मेरे होने का एहसास दिलाएँ मुझे,

जैसे बौछार में शीशम के पत्ते रोकते हों,

उन टपकती बूँदों के सैलाब को,

पर मैं चलती रही, वो टपकती रहीं,

और बियाबाँ में गीली मिट्टी और लकड़ी की

खुशबू,

जैसे किसी कोने में मेरी छिपी हुई गहराइयाँ,

मुझे कभी दिखती नहीं पर महकती रहती हैं,


वो बर्फ़ का जमना और पिघलना,

जैसे मेरी कहानियाँ बर्फ़ में घुल गईं हों,

वो कहीं दूर क्षितिज था पर करीब लगा,

जैसे एक हाथ बढ़ाकर मुझे मिल जायेगा,

रात की ख़ामोशी में दूर किसी का सुर,

जैसे मेरे मन के अनसुने राग हों,

और उस ठिठुरन में अपने होने का एहसास,

जाने कहाँ से मुझे खुद में समाते हुए,

वो वादियाँ, वो दरख़्त, वो काफ़िले,

वो बस सुकून में अपने से लगे मुझे,

उस चिनार के पेड़ का हवा से लड़ना,

वो गूँज अब भी सुनाई देती है मुझे,

कहीं से वो मुझ जैसे हैं सभी,

तिनकों और मौसमों को पिरोते हुए,

मैं हूँ और वो वादियाँ हैं,

दूर ही सही आदतों से बँधे हुए..


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