अंतर्द्वंद्व
अंतर्द्वंद्व
चटक रही थी आग एक सर्द रात को,
जब वो ठिठककर ठहरी,
क्या बुतपरस्ती के किस्से,
क्या ख़्यालों के हिस्से,
क्यों मैं बर्फ़ से पिघलकर दुनिया में बहूँ।
मुसाफ़िर तो हूँ मैं चिनार-ए-दरख़्तों की,
अब ज़रा काहिली में ख़्वाब बुन लूँ।
ये हर दिन के उलझे अक्स जो सदियों से लिखते आए हैं,
रात की तारीख़ों पर कोई सुलझी सी इबारत लिख लूँ।
चंद्रगुप्त से शेर शाह तक जो रिवायतें बनी थी,
क्यों ना उन्हें फ़िर से जलते हुए शमशानों में गुलशन कर लूँ।
सफ़र पर रंजिशें तो बहुत मुकम्मल हुई हैं,
अब ज़रा मैं सन्नाटों को अख़्तियार कर लूँ।
बहुत तकल्लुफ़ किया है कि कफ़स जला दूँ या डुबो दूँ,
क्यों ना अब चमन को उजड़ने की फ़ुर्सत दे दूँ।
कई किताबें हैं सुनाती बीती सदियों के किस्से,
क्यों ना मैं अगले ज़मानों को रोशन कर लूँ।
थक गया है वजूद पहिए पर घिस घिसकर,
क्यों ना अब फ़ुर्सत से दो-चार उम्र जी लूँ।
यहाँ चिंगारियाँ लौ बनने को लड़ती हैं,
मैं राख से ही आँधियों में लपटें मयस्सर कर लूँ।
काग़ज़ पर लफ़्ज़ों से किस्से तो बहुत लिखे हैं,
अब ज़रा बर्फ़ पर सुकून-ए-फ़ेहरिस्त आबशार कर लूँ।
इतने सवाल पेश किए हैं कद्रदानों ने,
उन जवाबों की तलाश बादलों पर ना सही ज़मीन पर कर लूँ।
आईने से गुफ़्तगू-ए-शराफ़त तो बहुत की हैं,
अब ज़रा बेअदबी से कुछ सवाल कर लूँ।
बड़े मशहूर थे वो लोग जो चले गए,
मैं नामालूम होने से पहले अपना तारूफ़ कर लूँ।
महफ़िलों में शिरकत तो कई दफ़ा की हैं मैंने,
अब ज़रा ग़ज़ल-ए-तन्हाई गुलज़ार कर लूँ।