कलयुग का मनुष्य- कविता
कलयुग का मनुष्य- कविता
क्यों पर पीड़ा को देख मनुज,
तुम नयनों से नीर बहाते हो,
दुर्गम से मार्ग के पथिक से,
अपनों सा स्नेह दिखाते हो।
जब रक्त किसी का बहता है,
तुम्हारा हृदय व्यथित होता है,
किसी भूखे मनुष्य को पाकर,
निवाला नहीं गटका जाता है।
तुम निर्धनता को जानते हो,
तुम निर्बलता को मानते हो,
पर हे मनुज तुम फ़िर भी प्रतिदिन,
मलीनता मिटाना जानते हो।
तुम हो वही शोषित वर्ग,
तुम हो वही मज़दूर सही,
जो स्वयं अभावों में जीकर,
एक बूँद से तृप्त हो जाता है।
तुम देख किसी मानव को,
अपने जैसा प्रसन्न हो जाते हो,
हैं भले लोग संसार में अब भी,
यह मान धन्य हो जाते हो।
हे मनुज तुम्हारे जैसों को,
ब्रह्मा ने था वरदान दिया,
विष्णु ने था गुणगान किया,
था महेश ने भान किया।
जब द्वापर, त्रेता, सतयुग,
धरती से सब लुप्त हो जाएगा,
जब घोर कलयुग आएगा,
जब मानवता का नाश हो जाएगा।
जीवन मूल्य रहेंगे तब भी,
निर्धन, दानी, धनी, निशाचर,
किसी योनि में भेद नहीं रह जाएगा,
जो भी इनमें किसी और का होगा।
जो औरों को साथ उठाएगा,
जो पर पीड़ा को हृदय लगा,
मन से संताप हटाएगा,
बस वो मनुष्य कहलाएगा,
बस वो मानव रह जाएगा।
