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Aditi Mishra

Others

4  

Aditi Mishra

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मुर्दों का संसार

मुर्दों का संसार

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कई दोपहर आँख मूँद कर,

शीशम के उस पेड़ के नीचे,

यूँ ही ऊँघा करती थी।

बित्ते भर की एक गिलहरी,

टूटी टहनी से मिट्टी कुरेदती,

कल्पनाओं में उड़ती थी।

अलसाई सी धूप पड़े जब,

पत्तों में से लुक छुप कर,

नीले सफ़ेद आसमान के बादलों में से,

वो टुकुर टुकुर सूरज को तकती थी।

कोटर के आगे की दुनिया बड़ी अनोखी,

सुना था उसने कुट कुट करती,

पेड़ के ऊपर रहती चिड़िया से।

यहाँ बहुत ठहरी है ज़िन्दगी,

पंख होते तो उड़ जाती,

अक्सर सोचा करती थी।


एक दोपहर आँख मूँद कर,

यूँ ही ऊँघ रही थी,

शीशम का वो पेड़ ना था,

कोटर के आगे की दुनिया में।

कई बरसों से दिखा ना था,

सुना था किसी को कहते हुए।

यहाँ कोई चिड़िया ना रहती,

धूप लुक छुप कर ना आती थी,

आसमान भी काला था।

लोग दिखे थे कल कुछ पीछे,

पर मुर्दा भीड़ उसे ना भाती थी,

बात यहाँ अब कोई ना करता।

सुना था उसने बरसों पहले,

हँसी ठिठोली हर दोपहर होती थी।

बारिश में बूँदों की टप टप,

सर्दी में दाँतों की किट किट,

किससे कहती कौन यहाँ था।

सुना किसी से लोग यहाँ अब,

डब्बों में कैद रहते थे।

घड़ी की टिक टिक चलती रहती,

घर पर भी वे डब्बों में कैद रहते,

खिड़की से तब भी ना दिखते।


उस दोपहर आँख मूँद कर,

ऊँघ रही थी जब वो।

पत्तों में से जलती धूप पड़ी,

लुक छुप कर आती हुई।

पोंछ पसीने की बूँदों को,

चैन उसे तब आया,

जब देखी वो टूटी टहनी,

और कुरेदी हुई मिट्टी।

कोटर भी था पास में ही,

सोचा उसने भयानक स्वप्न,

सच होता तो क्या होता।

क्या सचमुच ऐसा संसार है,

बिना शीशम के पेड़ का।

जहाँ ना बादल जहाँ ना चिड़िया,

ना आँख मिचोली धूप से।

लोग कहाँ होंगे ऐसे जो,

बुत के जैसे जीते हैं।

मुर्दों जैसे रहते होंगे,

ऐसा कोई संसार है क्या।


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