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Aditi Mishra

Abstract

4  

Aditi Mishra

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ज्वार भाटा

ज्वार भाटा

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उससे कुछ कहना है मुझे,

वो जो रात को मिलने आती है।


दबे पाँव सहमी हुई सी पहले,

दिन भर जो ज्वार भाटे सी उबलती है,

शाम ढलते प्रवाह में बहा ले जाती है।


एक रौद्र रूप लेकर वो,

मेरे तकिये के नीचे से खिसककर,

मेरे कानों में गरजती है।


मैं सोचती हूँ शायद कोई वहम है,

वो रात तक अथाह वेग लिए आती है।


मैं उखड़ती साँसों से लड़ती हूँ,

डूबती हुई तैरने लगती हूँ।


लहरों में उठती गिरती मैं,

किनारे का रास्ता ढूँढ़ती हूँ।


वो कहती है किनारे तक पहुँचना है,

तो लहरों से लड़ो,

मन के उस वेग को,

रोको मत, बस उड़ेल दो।


मैं थक चुकी हूँ,

उनींदी आँखें, बेचैन मन,

रोज़ का यही सिलसिला।


अब और नहीं होता मुझसे,

मेरी रगों से स्याही बहती है,

जब शब्द टपकते रहते हैं।


पर मन कहता है,

क्या होगा इससे,

तुम दिनकर नहीं हो,

ना ही तुम हो निराला,

कोई क्यों पढ़ेगा इसे।


क्या रोज़ यही उल्टी करना,

इतना कैसा उद्वेग है,

जब किसी का ये उद्गार नहीं,

जब तुम्हें पता व्यापार नहीं,

कैसे शब्दों को बेचोगी,

तुम्हें नए दौर का ज्ञान नहीं।


मैं शब्दों को पट पर उड़ेलकर,

साँस गहरी लेती हूँ,

मुझे नए दौर का भान नहीं,

पता कविता का व्यापार नहीं।


पर रूह से स्याही निकलती है,

तो मन को सुकून मिल जाता है,

उस वेग में बहती रहती हूँ,

लहरों में टूटकर जुड़ना आता है।


अब पौ फ़टने वाली है फ़िर,

आज की रात स्याही ख़त्म हुई।


किनारा दिखने लगा है मुझे,

बत्ती की लौ बुझ रही है,

सुबह की रोशनी हो रही है,

मैं नींद में उस कविता के उबाल को,

शान्त होता देखती हूँ।


अब नींद मुझे आ जाएगी,

कल रात फ़िर वो आएगी,

रूह से स्याही फ़िर बहेगी

मुझे लहरों में बहा ले जाएगी।


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