गूंज - किस्मत
गूंज - किस्मत
अक्सर किस्मत पे रंज ब्यान करते हुए,
निगाहें गुस्से से हथेलियों पर,
बिछी उन लकीरों के झुरमुठ पे आ थमती हैं।
और बस, दिल में लावे से उबलते हुए हर जज़्बात
उमड़ पड़ते हैं उन बेबस लकीरों को देखते ही,
कई बार तो उँगलियों से नाखुनों से उन्हें खरोचने मिटाने तक
का बेहद बेरहम खेल घंटो चलता है,
पर हवा के निशाँ मिटा पाया है कोई कभी,
दरअसल कसूर तो उन पाक़
मासूम रेखाओं का भी नहीं है,
कुदरत ने आरी टेढ़ी तिरछी सी
बनाके बस बिछा दिया है उन्हें हर हथेलियों पर,
वैसे ही सजे रहने का पड़े रहने का हुकुम है उन्हें,
उन्हें क्या पता क्यों इंसान उनसे इतनी शिकायतें फरमाते हैं,
क्यों अदावतों का सारा बौछार उनके हिस्से उड़ेल देते हैं,
यह और बात है की भूल ए भटके उन्हें भी कभी,
पंखुरिओं से होटों का चुम्बन नसीब हो जाता है,
पर कभी तो खंजर की तेज़ धार पर सूली चढ़ी
रख्त बहाती भी मिलती हैं,
कुदरत भी एह्मक सी है कुछ,
अजब सी शतरंज की सेज़ सजा राखी है,
दोनों तरफ के खिलाडियों का खेल वह खुद ही खेलती है,
और दोनों खिलाड़ी बस अनजान बने
उसके इशारो पे थिरकते रहते हैं।