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Dr Jogender Singh(jogi)

Abstract

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Dr Jogender Singh(jogi)

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गुम

गुम

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मुड़ कर यूं गया, ना मुड़ा फिर कभी

कारवां खुशियों का,भूल गया पता मेरे आंगन का।

दिन में दो बार, बुहारता एक एक कोना,

धूल झाड़ता बार बार।


मायूसी हाथ की पकड़ ,

ग़म की छांव , श्रृंगार बन गया।

सात समन्दर पार।

एक उम्मीद बैठी। 


मुस्कुराती शायद सोच कर,

पता बखूबी याद मेरे आंगन का।

नहीं चाहिए प्यार उसे, अब मेरे आंगन का।


दौर अब पेड़ोंं को

जड़ों समेत दूसरी जगह ले जाने का।

क्या हुआ एक पौधा गया सात समन्दर पार।

मेरे आंगन का।


नथुने अब भी भरे है, खुशबू से तेरी।

बौर भी दिखता सपनों में,

दूर नहीं दिल से, बन गया है पेड़,

वो पौधा मेरे आंगन का।


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