गुम होते घर
गुम होते घर
घरौंदे जो कभी
हुआ करते थे घर,
दुकानों में तब्दील
होते जा रहे हैं।
न देहरी, न चौखट,
न आँगन में झूला
न गर्मी की छुट्टी में
अपनों का मेला।
न नीम की छांव,
न बरगद घनेरा,
यहाँ हर मकान में है
इंसां अकेला।
दीवारें भी गूंगी और
बहरी हैं इनकी,
के लगता नहीं यहाँ,
सरगम का मेला।
सजते संवरते हैं
पहले से ज़्यादा,
पर इन घरों में
न निभता कोई वादा।
दालान में न बैठा कोई
बुज़ुर्ग़ नज़र आता है।
पाँवदान भी अब
साफसुथरा नज़र आता है।
त्योहारों में बाज़ार अब
ज़्यादा जगमगाते हैं,
पर दिए हर कोई
अकेले ही जलता है।
मेले नहीं लगते
अब शादियों में अपनों के।
जल्दी में हर एक
इंसान नज़र आता है।
बेटी की डोली
उठने से पहले ही,
सामान आज सबका
बंधा नज़र आता है।
शोर बहुत होता है
रस्में भी सब निभतीं हैं,
फिर भी मन का कोना कोई
खाली नज़र आता है।
दिखावे के शोर में
शांति हो गयी है गुम,
कि घर की नींव ही
बिखरती सी जा रही है।
वो जो था एक घर...…
अब गुम हो गया है।