STORYMIRROR

Sudhir Srivastava

Abstract

4  

Sudhir Srivastava

Abstract

गर्मी की प्रचंडता

गर्मी की प्रचंडता

2 mins
7

चिलचिलाती धूप, असहनीय गर्मी का प्रहार
व्याकुल है हर प्राणी, पशु-पक्षी, पेड़़-पौधे
कीड़े-मकोड़े, कीट पतंगे सब असहाय से हो गये हैं, 
किससे कहें अपनी पीड़ा, अपना दर्द
जब धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी
इंसान खुद को भगवान से कम कहाँ समझता है,
अपनी सुख-सुविधा के लिए
अपने ही कुल्हाड़ी मार रहा है, 
और कुछ भी समझ नहीं रहा है। 
कौन दोषी है, कितना कम या ज्यादा
यह सब उछल- उछल कर खुद कह रहा है। 
पर मैं तो खुद को दोषी मानकर
प्रभु से अनुरोध कर रहा हूँ
साथ ही गर्मी के लिए गर्मी को दोष भी नहीं दे रहा हूँ, 
गर्मी तो हमारी उदडंता का शिकार हो रहा है
बहुत कोशिश के बाद भी जल रहा है
हमसे मौन निवेदन कर रहा है, 
जिसे हम नकारते जा रहे हैं जब
तब वो भी कराह रहा है, 
हमें दुखी नहीं करना चाहता है
इसके लिए मन ही मन रो भी रहा है, 
प्रभु जी हमें माफ करो न करो
पर बुद्धि- विवेक को थोड़ा और विस्तार दे दो
अपने ही पैरों में खुद ही कुल्हाड़ी मारने की
हमारी सोच को हर लो, 
विकास की अंधी दौड़ में दौड़ने से बचा लो, 
कम से कम अपने और अपनों के लिए
प्रेम,प्यार, सद्भाव जगा दो, 
प्रकृति पर हर प्राणी का समान अधिकार है
हमारे व्यवहार में यह भाव जगा दो
गर्मी जला रही है, जलाने दीजिये, 
प्रचंडता का नृत्य कर रही है, तो करने दीजिये
क्योंकि हम ही कौन सा दूध में धुले हुए हैं
अपनी मनमानियाँ खूब करते जा रहे हैं। 
वो तो अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवहार कर रहा है, 
दोहरा मापदंड भी तो नहीं अपना रहा है
फिर भी बेचारा हमारी गालियाँ चुपचाप सहन रहा है
ईमानदारी से सिर्फ अपना काम कर रहा है। 
अब यह हम आप क्यों नहीं समझते'
कि गर्मी में गर्मी का प्रचंडता का 
नृत्य नहीं होगा तो क्या होगा? 
अब जब आज यह बड़ा प्रश्न मुँह बाये खड़ा है
प्रचंड गर्मी में सब कुछ जलने की कगार पर जा रहा है
तो इसमें आखिर दोष किसका है? 
सोचना समझना भी हमें आपको है
कि स्वार्थी विकास की आड़ में
प्रकृति से छेड़छाड़ अब से नहीं करना है, 
वरना गर्मी के प्रचंड ताप में जलना भुनना है
जीने के लिए जीना है या मरते हुए जीना है
अथवा अपना वैमनस्य वाला कृत्य नहीं छोड़ना है
ईमानदारी से कह रहा हूँ यही सही समय है, 
जब फैसला हमको -आपको करना है। 

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract