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saloni sethiya

Abstract

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saloni sethiya

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गरीबी

गरीबी

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चलकर नंगे पाँव कोई दर-दर भटक रहा है

कभी सड़कों पर तो कभी फुटपाथ पर ही सो रहा हैं


जलती धूप में कोई गरीबी का इम्तिहान दे रहा है

गुजरती हूं कभी उन रास्तों से अहसास यही होता है


कोई इंसान दाने-दाने का मोहताज हो रहा है

ख्याल अक्सर मन में आता है अरमान तो इनके भी होंगें


कोई गरीबी में अपनी किस्मत को कोस रहा हैं

ठिकाना तो उन पंछियों का भी होता है


कोई इंसान हैं जो मकान में नहीं सो रहा हैं

गुजरती हूं कभी उन रास्तों से अहसास यही होता है

कोई इंसान दाने-दाने का मोहताज हो रहा है।


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