ग़ज़ल
ग़ज़ल
सोचकर अंजाम क्या, झुकते रहोगे कब तलक।
दर्द की गठरी लिए, फिरते रहोगे कब तलक।।
बदलते हालात हैं,तू खुद अभी काबू में कर।
मौत तो आनी रही, डरते रहोगे कब तलक।।
राह में पर्वत शिखर ,को काटता मांझी कोई।
साथ आ जाओ न अब, बिखरे रहोगे कब तलक।।
हो रहे अन्याय को, क्यूं देखता आवाम है।
आज ना तो कल सही,मरते रहोगे कब तलक।।
इक क़दम चलकर दिखा,'साहिल'तिरे ही साथ है।
जुर्म के हैं जलजले, सहते रहोगे कब तलक।।