गजल के नज्म
गजल के नज्म


फितना गर नही होता तो और क्या होता
इश्क से लबालब समन्दर न सहरा होता
मौसिकी ने तिरी युं तो छीन ली नींद मिरी
आँख का आँसु ये मेरी गिरा गिरा नही होता
मुझको बरबाद कर के तु बहुत गहरी नींद सोया
बीज़ नफरत का बो कर बाद में फिर रोया
आशना न हुआ तो क्या हुआ इश्क तो था
फलक के चांद सा शफ्फाक पर दाग तो था
अब नहीं आयेगा कोई भूला भटका या के अट्का
मैं अकेला सितमगर तो नहीं था इस ज़हान् में
वस्ल की रात है अरुण अतृप्त चलो गुस्ल कर लें
सहमा सहमा सा पूरा बाजार है चलो बजु कर लें।