ग़ज़ल - कभी हँसने का मज़ा हो कभी रोने का मज़ा...
ग़ज़ल - कभी हँसने का मज़ा हो कभी रोने का मज़ा...
कभी हँसने का मज़ा हो कभी रोने का मज़ा।
कभी पाने का मज़ा हो कभी खोने का मज़ा।
लुत्फ़ आए जो मिले ज़ीस्त से दोनों ही मज़े,
सभी कुछ होने का और कुछ भी न होने का मज़ा।
ज़ख़्म खाने का मज़ा हम को भी आ जाए अगर,
उन को आ जाए हमें तीर चुभोने का मज़ा।
रिंद कह कर जो हिकारत से हमें देखते हैं,
उन को बतलाए कोई दर्द डुबोने का मज़ा।
साथ यारों के न बैठा कभी वो क्या जाने,
रात भर जाग के फिर सुब्ह को सोने का मज़ा।
रंग इक सा नहीं ख़ुशबू भी जुदा है फिर भी,
एक धागे में ही है फूल पिरोने का मज़ा।
जिस में अपनो की तमन्नाएँ हो उम्मीदें हो,
सब के कंधो को मिले बोझ वो ढोने का मज़ा।
सारे सपने कभी पूरे नहीं होते हैं मगर,
ख़ुद से छीनो न कभी उन को सँजोने का मज़ा।