ग़ज़ल-ए-इल्ज़ाम
ग़ज़ल-ए-इल्ज़ाम


आज ही, वो इश्क़ लड़ाने से बाज नहीं आयीं मुझसे,
सच में, सब्जी जल गयी तो इल्जाम मुझपर आ गया,
वो गुफ्तगू करती रही मुझसे मजाकिया अंदाज में,
रोटी गोल न बन सकी तो इल्ज़ाम मुझपर आ गया,
मेरे ज़ख्मों पे नमक लगा के वो हँसती रही इस कदर,
उन्हें दाल फीकी लगी तो इल्ज़ाम मुझपर आ गया,
जब थी वो मेरे साथ उनको हँसता देखा था किसी ने,
यूं चाँद की मायूसी दिखी तो इल्ज़ाम मुझपर आ गया,
इस हसीने जहां में प्यार करते थे हम बहुत एक दूसरे से,
हमारे बीच जब नफ़रत घुली तो इल्ज़ाम मुझपर आ गया,
सहता रहा मैं रेज़ा रेज़ा ग़म-ए-जद्दोजहद की ख़्वाहिशें को,
ख़्वाहिशें मेरे प्रति मिटने लगी तो इल्ज़ाम मुझपर आ गया ,