Ghazal No 17 सितम तो ये है कोई सितम ना किया तूने
Ghazal No 17 सितम तो ये है कोई सितम ना किया तूने
जो कारवाँ था तेरे साथ तेरी कामयाबी के राहगुज़ार में
क्या नज़र आयेगा तुझे तेरी नाक़ामी के ग़ुबार में
खुदा छूटा इश्क़ में और इश्क़ छूटा रोज़गार में
हुआ कुछ भी ना तकमील इस ज़िन्दगी-ए-बेज़ार में
अब वो मज़ा कहाँ तेरे ज़ुल्फ़-ए-गिरफ्तार में
लुत्फ़ जो मिला दिल-ए-बेकरार में
सितम तो ये है कोई सितम ना किया तूने
तेरी वफ़ा का कभी एहसास ही ना हुआ तेरे प्यार में
गज़ब का सौदागर था वो कारोबार-ए-इश्क़ का
मेरा ही दिल लौटाया मुझे उधार में
ये तेरी अज़िय्यतें थीं कि थीं तेरी इनायतें
होश कहाँ था तेरे मिलने कि बाद दिल-ए-होशियार में
की कोशिश लाख उसके करीब आने की मगर
एक दरार तक ना पड़ी उसके तग़ाफ़ुल-ए-हिसार में
इंसान की हस्ती है यहाँ वो कश्ती जिसे दिया है
छोड़ नाख़ुदा ने दरिया-ए-हयात के मंझदार में
कैसे मारे कोई पहले से मरे हुए इन्सानों को
मौत को भी देखा हमने यहाँ इज़्तिरार में
हो ही नहीं सकता इस बर्बाद-ए-जहाँ का इलाज़ कोई
आगाज़ ही से है ये दुनिया ख़ुदग़र्ज़ों के इख़्तियार में
कब तक करेगा यूँही आईने को रुस्वा तू
कभी तो इंकिसारी ला अपने व्यवहार में
कितना नादाँ है वो शख़्स जो ये सोचता है कि
अभी तो वो बहुत पीछे है मौत की कतार में
ज़िबह कर दिया मुझे तेरी बातों के नश्तर ने वर्ना
क़ुव्वत कहाँ थी मुझे मारने की किसी तलवार में
ना तुझे दिखा तेरा खुदा ना मुझे मिला मेरा भगवान
फिर रखा क्या है इस आपस की तू-तकार में