गाँठ
गाँठ
गांठ जो बंध गयी थी कभी
कोशिश न की कभी खोलने की
कैंची उठा काट दिए धागे तुमने
सोचा न कभी उस गांठ में
सिसक रही थी दबी दबी सी
उलाहनों की कतारें लंबी
काट कर तो तुमने
अंत कर दी सब
उम्मीदों की लड़ियां
बंद थे दरवाज़े पर
दरारों से खुशियों को
नज़र लगती रही
न समझ सके तुम पीड़ा मेरे
न पढ़ पाये चेहरे मेरे
बस उलझे रहे खुद ही खुद में
मानती हूं मैं भी अब तो
रोक न पायी अपने कदम
शायद रुक जाती तो अच्छा होता
छोड़ आयी अरमानों के महल
कोशिश कर लेते गर तुम उस वक़्त
ये वक़्त का मंज़र कुछ और होता
तुम साथ मेरे अब भी होते
ये गांठ खोल लेते तुम तो
हम साथ साथ चलते रहते