एक मां की पुकार दिल्ली से
एक मां की पुकार दिल्ली से
सुना है दिल्ली दहल रही है
लाशें नलों में गल रही हैं
घर आ जा बेटा
अपने गांव आ जा।
जिंदगी की तलाश में गया था
दुनिया के साथ चलने गया था
जिंदगी बचाने गांव आ जा
एक दुनिया इधर अभी भी है।
उधर इंसानियत हैवानियत बन गई
लोथड़े लिवास खून से सन गई
जीते जी नरक भोग रहा है
मेरे आंचल तले घर आ जा।
अपनी इच्छाओं का गुलाम बना तू
इनके चलते गिद्धों के बीच रहा तू
जितनी मेहनत उधर करता तू
उसका आधा यहां कर घर आ जा।
इधर आज भी कोई वायरस नहीं
अंधी भगाती कोई ख्वाहिश नहीं
एक पीड़ा से मुंह से 'हे मां' निकले
मरहम लगाने अपने घर आ जा
तेरी मां बुलाती अपने गांव आ जा।