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संदीप सिंधवाल

Abstract

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संदीप सिंधवाल

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एक मां की पुकार दिल्ली से

एक मां की पुकार दिल्ली से

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सुना है दिल्ली दहल रही है

लाशें नलों में गल रही हैं

घर आ जा बेटा 

अपने गांव आ जा।


जिंदगी की तलाश में गया था 

दुनिया के साथ चलने गया था

जिंदगी बचाने गांव आ जा

एक दुनिया इधर अभी भी है।


उधर इंसानियत हैवानियत बन गई

लोथड़े लिवास खून से सन गई

जीते जी नरक भोग रहा है

मेरे आंचल तले घर आ जा।


अपनी इच्छाओं का गुलाम बना तू

इनके चलते गिद्धों के बीच रहा तू

जितनी मेहनत उधर करता तू

उसका आधा यहां कर घर आ जा।


इधर आज भी कोई वायरस नहीं

अंधी भगाती कोई ख्वाहिश नहीं

एक पीड़ा से मुंह से 'हे मां' निकले

मरहम लगाने अपने घर आ जा

तेरी मां बुलाती अपने गांव आ जा।


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