एक लाचार भाई
एक लाचार भाई


उस दिन मग़रूर सारा चूर हो गया ,वहाँ जाने को मजबूर हो गया ,
मैं मजबूर होकर , निकल पड़ा उन खुनी सड़को की ओर ,
उन राहो में , गम के साये थे , वहाँ अपने भी पराये थे ,
तनहा सा ,अजनबी सा, मैं चलता रहा,
गुजरता रहा ,उन सँकरी गलियों से ।
कोई पूछने वाला न था ,”क्या मैं ख़ैरियत से हूँ ?”,
कैसी फ़िज़ा थी वह , वहाँ घुटन सी महसूस होती थी ,
वहाँ गर्म हवाएँ चलती थी , तन्हाई चुभा करती थी ,
तनहा सा ,अजनबी सा ,मैं चलता रहा ,
गुजरता रहा ,उन सँकरी गलियों से ।
कुछ दूर चलने पर देखा , लगी थी लोगो की कतार ,
मचा हुआ था शोर , भीड़ लगी थी चारो ओर ,
पास गया तो देखा मैंने , अर्द्ध-नग्न बहना पड़ी हुई थी ,
तमाशबीन सब देख रहे थे , बहन मेरी वहाँ तड़प रही थी
पास में बैठी मेरी माँ , बिलख -बिलख कर रो रही थी ,
कोई सुनता था मेरी पुकार , मैं बैठा रहा लाचार ।