एक गलती कितनी भारी
एक गलती कितनी भारी
बात यह पुरानी है। जिंदगी को समझानी है। कभी-कभी हो जाती है
एक गलती तो क्या परिणाम आ सकते हैं।
1972 का जमाना था
मेरे माता जी के31 उपवास मासक्षमण की तपस्या थी।
पारणे के दिन कुछ नहीं देते हैं।
खाली मुंग का पानी और प्रवाही चीजें देते हैं।
1 दिन 2 दिन बाद मेरे पापा जी को पत्नी की सेवा करने का मन किया।
उन्होंने सोचा मैं भी थोड़ा लाभ ले लूं।
उसकी तपस्या का पूरा फल मिलेगा।
मन में कुछ संतोष मिलेगा।
उन्होंने 2,3 मौसंबी का रस निकाला।
और माताजी को पीने को दे दिया।
उन्होंने ठंडा रस पिताजी को अहोभाग्य से देखते हुए पी लिया।
दो ही मिनट में माताजी की आंखें एकदम फिर गईं।
और वे चक्कर खाकर वहीं पर बिस्तर पर गिर गयी।
हालत इतनी खराब हो गई थी।
अब गई ,अब गई तभी मेरी बुआ जी जो वैद्य गिरी जानती थी वे आई।
उन्होंने उनकी हालत देखी सबसे पहले उन्होंने
अपनी देसी दवा जिसको अंबर बोलते हैं वह दिया
जो तपस्वीयों को दिया जाता है और भी बहुत कुछ किया।
जो मुझे पता नहीं।
और उसके बाद जो उन्होंने पिताजी को डांट लगाई थी।
मुझे आज तक भी याद है वह मंजर जिसने हमको सिखा दिया ।
कभी भी कोई मरीज हो कोई तपस्वी हो उसको ठंडा रस नहीं देने का।
हल्का गुनगुना सा पानी डालकर ही देने का।
नहीं तो ठंडे रस से शरीर में तकलीफ हो जाती है।
पूरे शरीर में कंपकंपी छूट जाती है।
यह बात हम को समझ में आई और हमने जिंदगी में है अपनाई।
वह तो सही था कि बुआ जी घर पर ही रहती थी।
2 मिनट में ही पहुंच गई नहीं तो देर होती तो क्या होता।
क्योंकि डॉक्टर के पास जाने का भी टाइम नहीं था।
हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि हम अपनी मां को खो चुके होते।
हम सब ने ईश्वर का धन्यवाद किया।
आगे से ऐसी गलती ना करने का प्रण लिया।
