एक भयंकर मंजर
एक भयंकर मंजर
धरती कांपी, अंबर कांपा, कांप रहा है जग-संसार
घर-घर है मटियाले चूल्हे, कौन लगाएगा भवसागर पार||
संक्रमण की लहर है फैली, छूटी, रोजी-रोटी, घर-दरबार
कैसे होगा कर्तव्यों का निर्वाह, न धन की कोड़ी एक भी पास||
शिक्षा मंदिर सभी बंद है, बंद, सारे धर्म-मंदिर द्वार
अशिक्षित मानव पशु समान है, कौन बनेगा ज्ञानाधार||
शक्ति बनती संगठन सबकी, शुद्ध, सोच-विचार और हृदय साफ
निस्वार्थ हो अपनी भावना, समस्या, समाधान के खुलते द्वार||
मीठी वाणी, प्रेम की शिक्षा, अपने-पराये जब होंगे साथ
संकट, आपदा छोटे दिखते, होता, चिंतन-मंथन सबके साथ||
किस करनी का दंड न जाने, झंझावातों से, धीर-वीर न होते उदास
कर्मठ हो समाधान ढूंढते, रख धैर्य, शांति, आत्म-विश्वास||
तन, मन, धन सब नश्वर वस्तु, ऐसे में होता ये एहसास
प्रकृति अपना खेल खेलती, ब्रहामांड पर उसका एकछत्र राज||