द्वंद्व
द्वंद्व
ध्वंस है विध्वंस है,
मिट रहा हर अंश है।
अंग-भंग हो जनमानस भी,
बिखरे चारों ओर हैं।
मन में समाहित संताप से,
धधक रही ज्वाला नफ़रत की ।
हृदय विदारक वीभत्सता का चाबुक,
फिर चलाया है अपने ही किसी दोस्त ने।
जब विश्वासी ही बने विनाशक,
अस्तित्व भी धुँधला जाता है ।
जीर्ण-शीर्ण मानवता का ,
चेहरा विस्मित हो जाता है ।
शोषित शोणित इस समाज का,
हर मानव असहाय है ।
संप्रदाय की बेड़ियों में,
जकड़ा हर ईमान है ।
शिक्षित समाज विक्षिप्त मस्तिष्क,
फिर कैसे संभव विकास ।
हे आने वाली पीढ़ी सुन,
अब तुम से ही बची हुई एक आस।
मन को अपने ना भटकाना है,
किसी झांसे में नहीं आना है
तुमको एक नया समाज बनाना है।
