दूर दूर तक बिखरा आसमाँ
दूर दूर तक बिखरा आसमाँ
दूर दूर तक बिखरा आसमाँ,
कौनसा तारा देखूँ मैं,
ये कितनी गहरी है निशा,
तुम्हें कैसे पहचानूँ मैं।
ना जाने कहाँ दूर है साहिल,
तुम्हें कैसे ढूँढू मैं,
बुझी है निगाहें,
खामोश है जुबां,
कहाँ देखूँ,
किससे पूछूँ तुम्हें मैं,
दूर दूर तक बिखरा आसमाँ,
कौनसा तारा देखूँ मैं।
ना है कोई रास्ता,
ना है कोई मंज़िल,
किस तरफ चलूँ मैं,
ना है कोई बताने वाला,
ना कोई समझाने वाला,
किस तरफ बढूँ मैं,
हर पथ की है दो मंज़िल,
किस तरफ कदम रखूँ मैं,
पर जीवन तो है एक,
किस राह को चुनूँ मैं।
दूर दूर तक बिखरा आसमाँ,
कौनसा तारा देखूँ मैं।
जीवन का हर पल है एक चुनौती,
इसे कैसे समझाऊँ मैं।
दर्द में टूटते हुए इस हृदय को
कैसे अल्प हर्षित करूँ मैं।
विषाद तो है इसकी एक व्यथा,
इसे कैसे अंतर्मन पर लाऊँ मैं।
दूर दूर तक बिखरा आसमाँ,
कौनसा तारा देखूँ मैं।।
