दूब का बिस्तर
दूब का बिस्तर
जब हम मिले थे पतझड़ में
फिर पतझड़ भी यूँ झूमा था
कि दूब का बिस्तर, जिस्म तुम्हारा,
कतरा कतरा चूमा था।
फिर एक दूजे में ऐसे बहके
गेसू जैसे गुलशन महके
फिर मिलकर घर एक ऐसा बनाया
जहाँ प्यार की बातें, प्यार के नगमे,
प्यार की कविता लिखते थे
फिर सर्दी गर्मी बरखा भर
हम साथ में जगते सोते थे।
फिर कुछ सालों तक साथ रहे कि
साथ तो यूँ ही रहना है
फिर दीवारें ये क़ैद बनी
और कुछ दिन में हम ऊब गए।
अब उस घर के साये में बस
यादों का पहरा रहता है
घंटों अब मैं उसी दूब की
घास पर बैठा रहता हूँ
छुप कर मैंने तुम को
अक्सर वहीं पर बैठा देखा है
छुप कर शायद तुम भी मुझ को
यूँ ही देखा करती हो।

