सरिता-सागर
सरिता-सागर
उदास बैठा सागर पूछे,
सरिता अब तक क्यों नहीं आयी ?
तुनक कर बोली सरिता,
सागर इतना हक़ क्यों जताते हो
सच पूछो तो मुझको तुम कौड़ी भर ना भाते हो।
सागर बोला सरिता मुझे यह बात समझ नहीं आती
नभ तक फैली मेरी बाहें, तुमको क्यों ना लुभाती ?
सरिता बोली सागर इसको आडंबर ही कहते हैं
प्यासे मुझको मीठा तुमको खारा-खारा कहते हैं।
फिर सरिता हँस कर बोली अब यह बाहें ना दिखलाओ तुम
दूसरी नदियों का क्या हश्र हुआ ये भी ज़रा बतलाओ तुम
सागर फिर अभिमान से बोला,
यह तो उन नदियों से पूछो, प्रेम विवश जो आयी हैं।
घाट-घाट की सीमा लांघ, अनन्त तक जो समायी हैं
प्रेम ही समर्पण है, समर्पण से क्यों घबराती हो
अंत मुझी में होना है फिर मुझसे क्यों शर्माती हो
अंत की बातें सुनकर सरिता स्वाभिमानी हो जाती है
अभिमानी सागर को अपना अंतिम संकल्प सुनाती है
अंत हुआ तो किसी मरु में अकेली ही मर जाउंगी
अनन्त के लोभ में आकर मैं सागर ना बन पाऊंगी
मैं सागर ना बन पाऊंगी।
