मुझे अंधरों से डर लगता है
मुझे अंधरों से डर लगता है
अंधेरा जैसे-जैसे गाढ़ा होता जाता है,
मुझे डर लगता है
सब सो रहे होते हैं,
मैं किताब निकालता हूँ
कहानियाँ पढ़ना चाहता हूँ
हर शब्द के आस-पास
नई कहानी बनती है
मैं सारी कहानियाँ लिख लेना चाहता हूँ
पर कलम से शब्द फूटते ही नहीं
कुछ शब्द अनजाने में गिर जाते हैं कागज़ों पर,
मैं उन पर इतनी स्याही चलाता हूँ
कि वे धब्बे बन जाएं
मैं शर्मिंदा हूँ उन शब्दों पर
किताब मुझसे कहीं खो जाती है
मुझे अब और डर लगता है
तुम शायद जाग रही हो
मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ
अभी बहुत शांति है,
तुम दिन के शोर में बातें करती हो
लेकिन इतने शोर में कैसे ?
क्या मैं तुम्हें चूम सकता हूँ ?
तुम करवट बदल लेती हो।
