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S Ram Verma

Abstract

3  

S Ram Verma

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दर्द का हलाहल

दर्द का हलाहल

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मैंने सोचा कि पी लूँ 

ये सारा का सारा दर्द 

कहीं तुम ना पी लो 

पर क्या पता है तुम्हें 

फिर मेरा मन भी ठीक  

वैसे ही पिघलता रहा 

जैसे शमा पिघलती है 


जैसे शिव ने पिया था 

हलाहल तो कंठ हुए थे 

उन के भी नील कंठ 

पर मैं तो ठहरा महज़

एक इंसान उस हलाहल 

ने तोड़ा और मोड़ा है 

मेरे अंदर के एहसासों को 

क्या तुम उन एहसासों को

फिर से सजा पाओगी बोलो !  


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