दिल्लगी
दिल्लगी
बेरंग बेजान बेरूह हूं और फिर
अपनी किस्मत का मारा हूं
दुनिया को लगता है कि मैं बस घूमता फिरता आवारा हूं
यूं तो कोई भी मिल जायेगा तुम्हें सनम
मुझको मारकर हंसती हो क्यों?
मैं मेरी मां का इकलौता सहारा हूं।
कभी आयना , कभी टूटे शीशे में अपने को देखता हूं
मैं जानता हूं मैं अपना बसर कैसे करता हूं
और तू कहती है चल भाग चलूं मैं तेरे साथ
तुझपे भरोसा कर लूं फिर , क्या मैं तुझे इतना पागल लगता हूं?
ठीक है , मैं मानता हूं जो भी तूने अपनी गवाही में कहा था
मगर तू नजरांदाज कर रही हर बात को , जो मैंने तेरे लिए सहा था
तू आज भी ख़ुद को सही साबित करती है और ज़माने से कहती है मेरे बारे में
कि मैं ही वो हूं बेवफ़ा, मतलबी शख्स जिसने तुझे तेरे जीते जी मारा था।।
मुझे तेरी बातें समझ अब आती नहीं
कभी तू कहती मैं गलत , कभी कहती मैं सही
अब नहीं घुलता मैं तुझमें उस कदर जाने जां
जिस तरह घुल जाती है शक्कर में दहीं।