दिल कि बात
दिल कि बात
आबादी का किस्सा सुनाता हूँ
कभी उसे देख देख मुस्काता था
आज भरे चौराहे बेवज़ह मुस्कुराता हूँ
यार मेरे मुझे घर ले जाने की बात करते है
पगाल हूँ ,सर न फोड़ दूँ
वो पास आने से भी डरते है
पुल के ऊपर जहां हम शाम बिताते थे
नदी के बहाव का लुफ़्त उठाते थे
उसी पुल ने नीचे कोने में खुली चट्टान पर मेरा बसेरा है
रात कितनी भी घनी क्यों न हो,दिखता मुझे सवेरा है
कभी नदी के बहाव को रोक देता हूँ
कभी हँसते हँसते खुद का सर फोड़ देता हूँ
जब कोई उस पार मिट्टी जलाने आता है
यूँ लगता है जैसे ,ऊपर से खुद मेरा बुलावा आता है
आसमान खुला है, एक प्यारी सी तस्वीर छायी है
लगता है खाने की थाली लिए मेरी माँ आयी है।