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Anju Singh

Abstract

4.8  

Anju Singh

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" धुंध "

" धुंध "

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143


चारों तरफ बिछी है धुंध की चादर

कोहरे की चादर में लिपटा है समां

दिख रहें हैं एक से जमीं वह आसमां

कैसे ढुंढू इस धुंध में धुंधलाता चेहरा तेरा


 धुंध भरी स्याह रातों में

सब कुछ सुना लगता है

अकेली वीरान सड़क पर

शायद ही कोई पथिक दिखता है


इस धुंध में है कुछ 

आता नहीं नजर 

पर जी करता

कुछ ढूंढने का

जो दूर तक है फैली

एक अनबुझी पहेली


धुंध का अस्तित्व होता 

थोड़े समय के लिए

पर कोई लुफ्त नहीं उठाता

इसमें खोने के लिए


धुंध भरी रास्तों से 

अकसर गुजर जाते हैं लोग

पर कहॉं कभी इसमें

कुछ ढूंढतें हैं लोग

दूर तक दिखता है सब

धुंध में घिरा घिरा


चारों तरफ है धुंध भरी

धरती आकाश एक बना

जैसे बादलों में उड़ रही मैं

धुंध लागे घना घना


धुंध भरी जब सुबह को देखा

चिड़ियों के चहकनें की आवाज नहीं

इस घनेरी धुंध में मैं बढ़ती जा रही

मंजिल नहीं दिख रही सामने

पर मुस्कुरा कर मैं बढ़ रही


कभी-कभी सिमट जाती है 

मुझमें यादों की पुरानी धुंध

दिन प्रतिदिन गहराती 

जाती है यादों की वही धुंध

उम्मीद है एक दिन छट जाएगी 

यादों की पुरानी धुंध


पर मैं बढ़ती जाती हूं

मंजिल की चाह में

कि धूप घनेरी आएगी

धुंध को बहा ले जाएगी।


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