" धुंध "
" धुंध "


चारों तरफ बिछी है धुंध की चादर
कोहरे की चादर में लिपटा है समां
दिख रहें हैं एक से जमीं वह आसमां
कैसे ढुंढू इस धुंध में धुंधलाता चेहरा तेरा
धुंध भरी स्याह रातों में
सब कुछ सुना लगता है
अकेली वीरान सड़क पर
शायद ही कोई पथिक दिखता है
इस धुंध में है कुछ
आता नहीं नजर
पर जी करता
कुछ ढूंढने का
जो दूर तक है फैली
एक अनबुझी पहेली
धुंध का अस्तित्व होता
थोड़े समय के लिए
पर कोई लुफ्त नहीं उठाता
इसमें खोने के लिए
धुंध भरी रास्तों से
अकसर गुजर जाते हैं लोग
पर कहॉं कभी इसमें
कुछ ढूंढतें हैं लोग
दूर तक दिखता है सब
धुंध में घिरा घिरा
चारों तरफ है धुंध भरी
धरती आकाश एक बना
जैसे बादलों में उड़ रही मैं
धुंध लागे घना घना
धुंध भरी जब सुबह को देखा
चिड़ियों के चहकनें की आवाज नहीं
इस घनेरी धुंध में मैं बढ़ती जा रही
मंजिल नहीं दिख रही सामने
पर मुस्कुरा कर मैं बढ़ रही
कभी-कभी सिमट जाती है
मुझमें यादों की पुरानी धुंध
दिन प्रतिदिन गहराती
जाती है यादों की वही धुंध
उम्मीद है एक दिन छट जाएगी
यादों की पुरानी धुंध
पर मैं बढ़ती जाती हूं
मंजिल की चाह में
कि धूप घनेरी आएगी
धुंध को बहा ले जाएगी।