ये नौ महीने
ये नौ महीने
ये नौ महीने जब मुझ में जीवन जमता है,
उनसे ही मैं मां हूं मिलती मुझे ये ममता है,
प्रसव का दर्द आता है तो कभी थमता है,
ममता ने ही दी इसके सहने की क्षमता है।
इस दर्द के ज्वार भाटे में कभी सोचती हूं,
आंख के कोरों के आंसुओं को पोंछती हूं,
कभी कभी हंसती भी हूं खिलखिलाकर,
जब उसकी नन्ही किलकारी सोचती हूं।
अरे सूरज तो हर रोज़ एक सा निकलता है,
पर सोचो तो मुझमें कितना कुछ बदलता है,
चांद शायद थोड़ी मेरी तकलीफ समझता है,
तभी तो मुझ संग वो भी खुद को बदलता है।
कभी मचलती हूं मैं तो कभी जी मचलता है,
स्त्री से मां होने का क्रम बस यूं ही चलता है,
इस सब्र का फल तब सच में मीठा लगता है,
जब वो बाहर आके मां कहते नहीं थकता है।
क्या तुमने देखा कभी बाप बच्चा जनता है,
पर हां मां के पिघलने से ही बच्चा बनता है,
यह वो प्रकृति क्रम जो कभी नहीं थमता है,
इन नौ मास की जीवन में ना कोई समता है।