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Himanshu Sharma

Abstract

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Himanshu Sharma

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धुँआ सा है!

धुँआ सा है!

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इन सर्द राहों में देखो तो फ़ैला हुआ कुंहासा है,

मानो तो बुझती हुई तपिश का एक धुँआ सा है !


गर दिखे इन सर्दियों में अब्र पर बादल कभी तो,

तो समझो कोई ऊपर बैठ के हो रहा रुआँसा है !


ज़िन्दगी की अँधियारी यादों का अक़्स दिखता है,

आज ज़िन्दगी के सामने हुआ ये एक ख़ुलासा है !


ज़िन्दगी में चलता रहता ग़म और ख़ुशी का दौर,

न जाने कौन कब आये कि हर मंज़र जुआ सा है !


खफ़ा हुए हैं अपने भी और, परायों का क्या कहें,

कि ऐसे आलम में ये इंसान हो रहा बदगुमाँ सा है !


समेटने की कोशिश की है मैंने हर बीते मंज़र को,

हो ना पाया ये कि हर मंज़र ज़रा यहाँ-वहाँ सा है !


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