धुआँ-धुआँ
धुआँ-धुआँ
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प्रकृति ने वरदान दिया
मानव का निर्माण किया
फूल-पत्ती ईनाम दिया
मानव ने उनसे नशा छान लिया
स्वयं दोहन के मार्ग संवारे
कलंकित किए काज सकारे
नहीं लाज, नहीं कोई लज्जा
नहीं आरोपित मानव दूजा
सस्ता-सा नशा किया
स्वयं को बलिहारी मान लिया
क्षति की अपने तन-मन को
परमानव का भी जीवन लिया
यह मानव को क्या हुआ
कहीं आग है
तो कहीं धुआँ-धुआँ
आज जो उसका सुख है
कल से उसको जड़ से खाएगा
एक मानव नष्ट होकर
लाखों को नष्ट कर जाएग।